भारतीय संस्कृति में कृषि व गौपालन का अति उत्तम स्थान रहा है। एक दो
नहीं लाखों करोड़ों गाँव वाले इस देश में दूध दही की नदियाँ बहती थी। हर
परिवार की कन्या दुहिता यानी दुहने वाली कहलाई । ब्रह्म मुहूर्त में उठते
ही गृहनीयाँ झूमती हुई दही बिलोती और माखन मिश्री खिलाती थीं व अन्न्दा
सुखदा गौमाता के लिए भोजन से पहले गौग्रास निकालना धर्म का अंग था।
तेरहवी सदी में मक्रोपोलो ने लिखा की भारतवर्ष में बैल हाथिओं जैसे
विशालकाय होते हैं, उनकी मेहनत से खेती होती है, व्यापारी उनकी पीठ पर
फसल लाद कर व्यापार के लिए ले जाते हैं। पवित्र गौबर से आँगन लीपते हैं
और उस शुद्ध स्थान पर बैठ कर प्रभु आराधना करते हैं। "कृषि गौरक्ष्य
वाणीज्यम" के संगम ने भारतीय अर्थव्यवस्था को पूर्णता, स्थिरता, व्यापकता
वः प्रतिष्ठा दी जिसके चलते भारत की खोज करते कोलंबस आया. व सं १४०२ में
भारत से कल्पतरु (गन्ना) और कामधेनु (गाय) लेकर गया. माना जाता है की
इनकी संतति से अमरीका इंग्लैंड डेनमार्क आस्ट्रेलिया न्युजीलैंड सहीत
समस्त साझा बाज़ारके नौ देशों में गौधन बढा . वोह देश सम्पन्न हुए और सोने
की चिडिया लुट गयी. अंग्रेजी सरकार ने फ़ुट डालने के लिए गौकशी का सहारा
लिया और चरागाह सम्बन्धी नाना कर लगाये गाय बैलों को उनकी गौचर भूमि पर
भी चरना कठिन कर दिया .
स्वतंत्रता संग्राम के सभी सेनानियों ने गौरक्षा के पक्ष में आवाज उठाई .
आजादी की लड़ाई दो बैलों की जोडी ने लड़ी. उसके बाद में भी देश की बागडोर
गाय और बछड़े ने संभाली. महत्मा गाँधी जी के शब्दों में " गौरक्षा का
प्रश्न स्वराज्य से भी बड़ा " कहा गया. स्वतंत्र भारत के संविधान
निर्माताओं ने मूलभूत अधिकार ५१-a और निर्देशक सिधांत ४८-a में पृकृति को
ऑउर्ण सुरक्षा व राज्य सरकारों को कृषि और पशुपालन को आदुनिक ढंग से
संवर्द्धित व विशेषत: गाय बछड़े एवम दुधारू व खेती के लिए उपयोगी पशुओं की
सुरक्षा का निर्देश दिया
आज का द्रश्य बिल्कुल विपरीत है।
अनुपयोगी पशुओं के नाम पर उपयोगी पशुओ का निर्मम यातायात व अवैधानिक कत्ल
देश के हर कोने में हो रहा है । तात्कालिक लाभ के लिए देश की वास्तविक
पूंजी को नष्ट किया जा रहा है । गाँव, नगर, जिला राज्य या देश की
आवश्यकता ही नहीं, विदेशी गौमांस की जरूरतें मूक पशुओं की निर्मम हत्या
कर पूरी की जा रही हैं. मुम्बई का देवनार आन्ध्र का अल कबीर या केरला का
केम्पको यांत्रिक कसाई खानों का जाल प्रति वर्ष लाखों प्राणियों का संहार
कर रहा है .
मांस का उत्पादन ही नहीं वरन विभिन्न यांत्रिक उपयोगों ने, रासायनिक खाद
प्रयोगों ने ग्राम शहरीकरण व विदेशी चालचलन ने इन मूक प्राणियों को
ग्रामीण विकास, अर्थव्यवस्था व रोजगार से दूर कर दिया है. आज रहट की जगह
नलकूप, हल की जगह ट्रेक्टर, कोल्हू की जगह एक्सपेलर, बैलगाडी के स्थान पर
टेंपो, उपलों की जगह गैस, प्राकृतिक खाद की जगह रासायनिक खाद आदि ले चुकी
हैं। इस प्रदूषण और प्राणी हनन के परिणाम आज असहनीय हो चुके हैं. हमारा
नित्य आहार रासायनिक हो विषयुक्त हो चूका है . कृषि की लागत कई गुना बढ़
चुकी है. गाँव में रोजगार के अवसर निरंतर घट रहे हैं. पर्यावरण दूषित हो
रहा है. कीमती विदेशी मुद्रा खनिज तेल व रासायनिक खाद के आयात में
बेदर्दी से खर्च हो रही है . कभी २ डालर(८५/-) प्रति बैरल का तेल आज १४०
डालर (रु. ६,०००/-) बोला जा रहा है और जल्द २०० डालर ८,४००/- हो सकता है
स्त्री शक्ति पशु पालन का अभिन्न अंग है। मूक पशु के निर्मम संहार ने
इसके उत्थान को रोक लगा दी है। आज जगह जगह अन्नदाता कृषक आत्महत्या करने
पर मजबूर है ।
भारतवर्ष की लगभग ४८ करोड़ एकड़ कृषि योग्य भूमि तथा १५ करोड़ ८० लाख
एकड़ बंजर भूमि के लिए ३४० करोड़ टन खाद की आवश्यकता आंकी गई है। जबकि
अकेला पशुधन वर्ष में १०० करोड़ टन प्राकृतिक खाद देने में सक्षम है ।
उपरोक्त भूमि को जोतने के लिए ५ करोड़ बैल जोड़ीयों की आवश्यकता खेती,
सिचाई, गुडाई परिवहन, भारवहन, के लिए है. इतनी पशु शक्ति आज भी हमारे देश
में प्रभु कृपा से बची हुयी है. उपरोक्त कार्यों में इसका उपयोग कर के ही
कृषि तथा ग्रामीण जीवन यापन की लागत को कम किया जा सकता है. प्राकृतिक
खाद, गौमुत्र द्वारा निर्मित कीट नियंत्रक व औषधियों के प्रचलन और उपयोग
से रसायनरहित पोष्टिक व नैसर्गिक आहार द्वारा मानव जाति को दिघ्र आयु
कामना की जासकती है .देश की लगभग ५,००० छोटी बड़ी गौशालाओं के कंधे पर
बड़ा दायित्व है. अहिंसा, प्राणी रक्षा तथा सेवा में रत्त यह संस्थाएं
हमारी संस्कृति की धरोहर हैं जो विभिन्न अनुदानों व सामाजिक सहायता पर
निर्भर चल रही हैं. अहिंसक समाज का अरबों रुपिया देश में इन गौशालाओं के
संचालन पर प्राणी दया के लिए खर्च हो रहा है. समय की पुकार है की बची हुई
पशु सम्पदा के निर्मम हनन को रोका जाये और पशु धन की आर्थिक उपयोगिता
सिद्ध की जाये.
आमजन के मानस में मूक प्राणी के केवल दो उपयोग आते हैं. दूध व मांस यानी
गौपालक गाय की उपयोगिता व कीमत उसकी दुग्ध क्षमता पर आंकता है और जब की
कसाई उपलब्ध मांस हड्डी खून खाल आदि नापता है. गौपालक को प्रति प्राणी
प्रति दिन रु.१५-२० खर्च ज्कारना होता है और येही २५०-३०० किलो की गाय या
बैल लगभग २-३,००० में कसाई को मिल जाता है जब तक यह गाय दुधारू होती है
गौपालक पालन करता है अन्यथा कसाई के हाथों में थमा देता है. पशु शक्ति,
गोबर, गौमुत्र की आय या उपयोगिता का कई हिसाब ही नहीं लगाया जाता है. जो
जानवर २-३,००० में ख़रीदा गया, २-३ दिनों में कत्ल कर रु.१००/- प्रति
किलो २०० किलो गोमांस, चमडा रु.१,०००/- १५-२० किलो हड्डियाँ रु. २०/-
प्रति किलो से और १२ लीटर खून दवाई उत्पादकों यो गैरकानूनी दारू बनाने
वालों को बेच दिया जाता है. प्रति प्राणी औसतन २०-२५,००० का व्यापार हो
जाता है. प्रति वर्ष अनुमानत: ७.५ करोड़ पशुधन का अन्तिम व्यापार रु.
१८७५ अरब का आंका जासकता है . इस व्यापार पर कोई सरकारी कर या रूकावट
नहीं देखने में आती है. गौशालाएं दान से और कसाई खाने विभिन्न
नगरपालिकाओं द्वारा करदाताओं के पैसे से बना कर दिए जाते है।
कानून की धज्जियाँ उड़ते देखने को
आइये आपको इस पूर्ण कार्य का भ्रमण कराते है.
इस अपराध की शुरुआत सरकारी कृषि विपन्न मंडियों से होती देखी जासकती है.
मंडीकर की चौरी के साथ में विपन्न धरो का साफ उलंघन यहाँ देखा जा सकता
है. पशु चिकत्सा व पशु संवर्धन विभाग के अधिकारियो से हाथ मिला कर कानून
के विपरीत पशु स्वास्थ्य प्रमाणपत्र के अंदर, वहां नियंत्रक, नाका
अधिकारियों को नमस्ते कर, पुलिस को क्षेत्रिय राजनीतिज्ञों की ताकत
प्रयोग में ला कर मूक प्राणी एक गाँव से दुसरे गाँव, शहर, तालुक जिला तथा
राज्य सीमा पार करा कसाईखाने तक पहुंचा दिए जाते है.. इन सरकारी या गैर
कानूनी कसयिखानो पर भी माफियों का एकछत्र राज देखा जासकता है. स्वास्थ्य,
क्रूरता निवारण, पशु वध निषेध आदि बिसीओं कानूनों की धज्जिँ उडाते हुए
बिना किसी चिकित्सक निरक्षण के विभिन्न रोगों ग्रस्त मांस जनता की
जानकारी के बिना परोसा जा रहा है
ऐसी विषम स्तिथि में केन्द्र, राज्य सरकार के विभिन्न विभागों की और
गौशालाओ की जवाबदारी असीम हो जाती है। प्रथमत: गौशालाएं जिनका भूतकाल में
बीमार, अपंग, निश्हाय, वृद्ध, गोवंश का पालन करना होता था परन्तु इस समय
गोवंश की उपयोगिता सिद्ध कर गौपालक को गौपालन में प्रेरित करना तथा विभिन
गौजनित पदार्थों के अनुसंधान, निर्माण, प्रचार की जिम्मेदारी संभालना
होगी. नयसर्गिकखाद , कीट नियंत्रक, समाधीखाद, सींगखाद, प्रसाधन सामग्री
साबुन, धुप अगरबती, कीटनियंत्रककॉयल, फिनायल, दवाईयां, रंग रोगन,
फर्शटाइल, ज्वलनगैस, तथा पशु शक्ति के जल निकासन, विद्युत उत्पादन,
परिवहन व भारवाहन के साथ कृषि के विभिन्न आयामों में प्रयोग की
प्रयोगशाला तथा शिक्षाशाला के रूप में कार्य करना होगा इन सभी आयामों का
उपयोग कर गौशालाओं को आर्थिक स्वालंबन की और कदम गौपालक का भी सही मार्ग
दर्शन कर सकेंगे. गौशालाएं अधिक से अधिक मूक प्रनिओं की सेवा कर सकेंगी.
इन आदर्श गौशालाओं के मार्ग दर्शन में आसपास के क्षेत्रों में पशु आधारित
उद्योगों की संरचना स्वरोजगार व कृषि लागत घटाने में मील का पत्थर साबित
होगी.
ग्रामीण स्वरोजगार आज देश की ज्वलंत आवश्यकता है। इसका एक साधन गौवंश
आधारित उद्योग ही हो सकते हैं। ग्राम को इकाई मान, ग्राम की गोवंशसंख्या
का अनुमान लगा गोवंश शक्ति का उपयोग पेयजल, विद्दुत, पिसाई, कृषि,
परिवहन, भारवहन, तिलहन पेराई आदि में, गौबर गौमुत्र बायो गेस बनाने, खाद,
नियंत्रक व विभिन्न उपरोक्त उद्योगों की स्थापना करना होगा। स्त्री शक्ति
इस कार्य में रूचि लेकर गौमाता की रक्षा व अपने आत्मसम्मान का उत्कर्ष कर
सकेगी। गोवंश नस्लसुधार कर गौपालक को अच्छी नस्ल के दुधारू पशु उपलब्ध
करवाना भी आदर्श गौशाला का उद्देश्य रखना होगा। मुझे पूर्ण विश्वास है की
अगर गौशालाएं यह सभी कार्य हाथ में लें और राजकीय तंत्र सहायक योजनाओं का
निर्माण व संचालन करे, भारतीय संविधान की भावना, विभिन्न विधि विधान पालन
का निर्धारण करे तो गौवंशशक्ति उपयोग तथा गोमय उत्पादन से स्त्रीशक्ति,
युवाशक्ति व गौवंश की रक्षा हो सकेगी। डॉ .श्रीकृष्ण मित्तल